Sainya-Darsana
धृतराष्ट्र उवाच धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः\nमामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।।1.1।।
उस धर्म-क्षेत्र कुरुक्षेत्र में, युद्ध- परायण एकत्रित हो |\nमम्-पुत्रों और पाण्डवों ने, किया जो, संजय उसको कहो || 1.1 ||
1.1 Dhritarashtra said What did my people and the sons of Pandu do when they had assembled together eager for battle on the holy plain of Kurukshetra, O Sanjaya.
धतराष्ट्र उवाच
Sainya-Darsana
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ\n तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।।3.34।।
इन्द्रिय का इन्द्रिय-विषयों में, निश्चित ही है राग-द्वेष तो \n इनके वश में मत आ जाना, हैं रास्ते के रोड़े ये तो ।।3.34।।
3.34 Attachment and aversion for the objects of the senses abide in the senses; let none come under their sway; for, they are his foes.
धतराष्ट्र उवाच
Sainya-Darsana
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत\n अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्।।4.7।।
हे भारत, जब जब दुनियॉ में, धर्म का ह्रास हो जाता है \n तब प्रकट स्वयं को करता हूँ, जब भी अधर्म बढ जाता है ।।4.7 ।।
4.7 Whenever there is decline of righteousness, O Arjuna, and rise of unrighteousness, then I manifest Myself.
धतराष्ट्र उवाच
Sainya-Darsana
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा\n इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते।।4.14।।
लिप्त करते कर्म नहीं मुझे, कर्मफल में मेरी रुचि नहीं \n ऐसे जो मुझे जानता है, बंधता कर्म-बन्धन में नहीं ।\n4.14 ।।
4.14 Actions do not taint Me, nor have I a desire for the fruit of actions. He who knows Me thus is not bound by actions.
धतराष्ट्र उवाच
Sainya-Darsana
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं\n अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।6.35।।
सन्देह नहीं, मन चंचल है, इसे कठिन है वश में करना \n पर अभ्यास या वैराग्य से, संभव इसको वश में करना ।\n6.35 ।\n
6.35 The Blessed Lord said Undoubtedly, O mighty-armed Arjuna, the mind is difficult to control and restless; but by practice and by dispassion it may be restrained.
धतराष्ट्र उवाच
Sainya-Darsana
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति\n अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि।।6.38।।
जगत का सहारा नहीं उसे, योग-पथ की मंजिल भी नहीं \n छिन्न-भिन्न बादल के जैसे, हो जाये विनष्ट वह न कहीं ।\n6.38 ।।
6.38 Fallen from both, does he not perish like a rent cloud, supportless, O mighty-armed (Krishna), deluded on the path of Brahman?
धतराष्ट्र उवाच